कविता:खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियां:निधि चौधरी

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खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियाँ
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किसी ने अड़ियल कह दिया,
किसी ने बिगड़ैल कह दिया,
और कोई घमंडी भी कह जाता है,
क्योंकि हर किसी को नहीं भाती…
ये तल्ख़ मिज़ाज सी लड़कियाँ,
जी हाँ खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियाँ।

किसी की नहीं सुनती है,
ख्यालों में खो कर सपने ही बुनती है।
कभी सूरजमुखी की कली सी,
तो कभी आसमानी बिजली होतीं हैं…
चट्टान हो कर तूफानों से लड़ती हैं ये लड़कियाँ,
खुद से खूब प्रेम करती हैं
ये बसंत सी सुहानी लड़कियां,
इसलिए खटकती है ये स्वाभिमानी लड़कियाँ।

खुद को ही खुद का ढाल कर लेतीं हैं,
तुम्हारे आँखों में आँखे डाल कर सवाल कर लेती हैं,
सिसकती या बिलखती नहीं,
सुलगती है ये बदजुबानी लड़कियाँ,
जी हां खटकती है ये स्वाभिमानी लड़कियाँ।

खुद की कश्ती का ख़ुद को पतवार करती है,
बुने सपनो को ऐसे ही साकार करती है,
रुकना या थकना नहीं जानती,
तुम्हारे नियमों को बिल्कुल नहीं मानती,
बिना तुम्हारी मदद के,
फक्र से सर उठा कर
बन जाती है इक प्रेरक कहानी, ये लड़कियाँ,
इसलिए खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियाँ।

और जब बारी आती है प्रेम और स्वाभिमान में से किसी एक को चुनने की,बेख़ौफ़ हो कर स्वाभिमान को ले आगे बढ़ जाती हैं,
ये ज़माने से बेगानी लड़कियाँ…
जी हाँ इसलिए खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियाँ…

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कविता:खटकती हैं ये स्वाभिमानी लड़कियां:निधि चौधरी

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