सियासी दलों के लिए श्रमिक अभी किसी देवता से कम नहीं ।

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राजेश दुबे

“आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख मंदिरों राजप्रासादों और तहखानों में ,देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में “
राष्ट्रकवि दिनकर की ये पंक्तियां वर्तमान दौर में बिहार में खूब दिखाई पड़ रही है ।

साल चुनावी है तो राज्य के नेताओ को यह डर सताने लगा है की श्रमिक ही इस साल चुनाव में बेडापार लगा सकते है ।हर तरफ श्रमिको को खुश करने का प्रयास किया जा रहा है ताकि वोट बैंक गड़बड़ाए ना ।  श्रमिको को देवता मान कर अब उनसे अपील की जा रही है कि अब घर छोड़ कर जाना नहीं है यही रहना है ।

बड़ी बड़ी गाड़ियों में शोभायमान नेता जी खेत खलिहानों का चक्कर लगाने लगे है । सत्ता पक्ष से लेकर विपक्षी दलो तक के नेता क्वार्नटीन सेंटर से लेकर खेत खलिहानों में पहुंच कर श्रमिको से दर्द बाट रहे है ।

मालूम हो कि 20-25 लाख श्रमिक अन्य राज्यो से अपने घर पहुंचे है जिसमें बड़ी आबादी 20 साल से लेकर 45 साल तक के उम्र की है जो समझदार मतदाता माने जाते है और किसी भी पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते है ।आगामी विधान सभा चुनाव में कैसे इन श्रमिको को अपने पक्ष में किया जाए उसके लिए नेताओ द्वारा प्रयास आरंभ कर दिया गया है ।

श्रमिक भी नेताओ के बदले रूप को देखकर सवाल करने लगे है “तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी है सूखने को पसीना मुआवज़ा है कहाँ ।

सियासी दलों के लिए श्रमिक अभी किसी देवता से कम नहीं ।