सुशील
जिस प्रकार वर्ष में नियमतः चार ऋतुओं का आगमन उनके समयानुसार होता दिखता है, उसी प्रकार बिहार की बदहाली बाढ़ रूपी त्रासदी ठीक साल में अपने समय पर उस कलंक गाथा को लिखने आ जाती है, जिसमे बेघर होते लोग, पनाह माँगते गरीब, भूख से परेशान बच्चे, उजड़ती खेती बाड़ी, नष्ट फसलों और महामारी का दौर सब फिक्स है।
बाढ़ से तबाह सड़के और बहते पुल पुलिया उस निर्माण तकनीक को बयां करती है जो जानती है कि प्रत्येक वर्ष नई सड़क और पुलिया के शिलान्यास के लिए कोई नेताजी आएँगे।
लोग अफसोस करते हैं, नेताओ को दो चार बात बोल देते है, पक्ष विपक्ष आरोप प्रत्यारोप का दौर, और फिर अंततः बारी आती है राहत पैकेज की।
जिसमे क्या राहत है और क्या पैकेज , पैसों को लाभुकों तक पहुँचने में लगने वाली रिश्वत और समय राहत कम फजीहत ज्यादा बना देती है।
कोरोना महामारी का दौर और उसपर अपनी सुविधाओं एवम सेवाओं की बदहाली में फंसा बिहार, ऐसी लाचारी जिसमे रोग से परेशान लोग और चिकित्सा-चिकित्सक का आभाव भारी है,
आभाव उन नीतिगत विचारों का भी है जो पद के साथ शपथ दिलाई जाती है।
किसी की कोई जवाबदेही तय नहीं, क्योंकि मरनेवाला आम इंसान हैं।
बाढ़ की विभीषिका बिहार में आना तय है, लेकिन जब फिलहाल प्रदेश कोरोना के संकट से गुजर रहा है, ऐसे समय पर तैयारी के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति से काम होता नही दिखाई दे रहा है।
सबसे चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इतने वैचारिक शक्ति और श्रम शक्ति होने के दावे करने वाले राज्य की बदहाली में भूमिका केवल राजनीतिक कारणों की है या फिर अब अपने गाँव शहर के उन्नति समस्याओं के निदान के लिए जवाबदेही जनता खुद तय करेगी ।