अंधेरे की ऋचा -अमृता भारती

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वह एक समय था।
मैं पहाड़ों से चाँदनी की तरह उतरा करती थी
और मैंदानों में नदी की तरह फैल जाती थी
मेरे अन्दर हिम-संस्कृति की गरिमा थी
और हरे दृश्यों की पवित्रता ।

मैं प्रेम करना चाहती थी
और रास्ते के
उस किसी भी पेड़, टेकरी या पहाड़ को
गिरा देना चाहती थी
जो मेरी रुकावट बनता था ।
वह पेड़ भाई हो सकता था
वह टेकरी बहिन
और वह पहाड़ पिता हो सकता था ।

मैं उन्हें याद करती हूँ
व्यक्तिगत अंक से कटे हुए शून्यों की तरह-अपने
प्रेमी या प्रेमपात्रों को,
वे एक या दो या तीन या
असंख्य भी हो सकते हैं ।
उनके शरीर पर कवच थे
और पैर घुटनों तक जूते में बँधे थे
उनके सिर पर लोहे के टोप थे
और उनकी तलवारें अपशब्दों की तरह थीं—
जिन्हें वे हवा में उछालते हुए चलते थे ।

वे अपने और अपनों के हितों के बारे में
आशंकित रहने वाले लोग थे ।
जब कभी
उनकी रोटी, शराब या औरत में
कोई चीज़ कम हो जाती थी
तो वे छाती कूट कर रोते थे
वे अपने मरे हुए पुरखों की उन रातों के लिए भी रोते थे
जो उन्होंने घरेलू कलह के दौरान
औरतों के बिना गुज़ारी थीं
और उनके वंशजों के लिए भी
जिनके पास रोटी तो थी
पर जो अभी शराब और औरत नहीं जुटा पाए थे ।

वे शामों और समुद्रों की
तटवर्ती आसक्तियों में प्रवृद्ध हुए लोग थे
गुलाबों और रजनीगन्धा की झालरों में
बार-बार मूर्च्छित होने वाले लोग ।

दौड़कर आई हुई नदी के किनारे

उन्होंने अपनी छतरियाँ तानी थीं

ताकि ठण्डी हवा के झोंकों के बीच

अपना घरेलू चन्दन घिस सकें

और मलबा फेंकने के लिए भी

उन्हें दूर न जाना पड़े ।

प्रेम उनके लिए

कभी खिड़की से देखा जानेवाला एक सुन्दर भू-दृश्य होता

कभी भागकर छिपने के लिए मिला

एक निभृत स्थान ।

वह नहीं था

धरती में रोपा जानेवाला कोई पौधा

या कोई लतर

जिसे श्रम के जल से सींचना ज़रूरी हो ।

जब भी हवा या आकाश की बात होती

वे उसे उस क्षण की अपेक्षा से काटकर

किसी सुदूरवर्ती स्वप्न में ले जाते ।

वे प्रकृति के निर्जन सन्नाटों में चल रहे

अभियानों की खबरों से भी जी चुराते थे

कि हस्तगत प्रेमिका की तरफ़ से, जीवन में

किसी भी साहसिक चेतावनी के ख़तरे को

आख़िर तक टाला जा सके ।

वे एक ही सम्प्रदाय के लोग थे ।

उनकी बातों और आदतों को शायद कहीं अलग किया जा सके

पर उनका स्मृति-प्रभाव

बिना किसी आश्चर्य के एक जैसा है ।

वे आज भी ज़िन्दा हैं
सबके भविष्य को
अपने वर्तमान में निचोड़नेवाले लोग
बहते हुए रक्त की यन्त्रणापूर्ण रोशनी से
अपनी नावें सजानेवाले लोग ।
वे हमेशा ज़िन्दा रहते हैं।

उन्होंने मुट्ठी भर रेत को रेगिस्तान कहा था

और कच्चे-से काँटे को सूली की संज्ञा दी थी ।



मैंने विश्वास की पवित्र शिला पर खड़े होकर

अपने जीवन की आग पर पानी डाला था ।






अंधेरे की ऋचा -अमृता भारती