साधना से सिद्धि की प्राप्ति

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पंडित श्री राम शर्मा आचार्य

उपासना की आवश्यकता और प्रतिक्रिया

कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से−उपचार उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार देव पूजन−आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया−कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है।

चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ-साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिएं अन्यथा कल्पना केवल जल्पना बन कर हवा में उड़ जाती है। विचारणा के साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएँ चाहते हैं उन्हें शेख चिल्ली कह कर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है।

उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठा को कार्यान्वित होते देख कर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही, सचमुच ही सामने है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। आत्मशोधन और देवपूजन के दोनों की कृत्यों में इसी प्रकार का भाव समन्वय होता है।

वह यदि बेगार भुगतने के उथले मन से किया गया है और जैसे−तैसे परम्परा गत लकीर पीटी गई हो−तो बात दूसरी है अन्यथा प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है उसे ध्यान में रख कर चला जाय तो अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा होगी और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन− अधिक साकार बन कर सामने आया है।


उपासना का तीसरा प्रयोजन है मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना। सामान्य जीवन में आत्म सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है अस्तु अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है। शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है। उनके खट्टे मीठे स्वाद भी चित्र−विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं। यों प्रिय अप्रिय स्तर की परस्पर विरोधी अनुभूतियाँ सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने−अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं। सफलताएँ अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं असफलताएँ दूसरे ढंग का। लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती है। दूसरी अप्रिय। इतना होते हुए भी दोनों की स्थितियों की गहरी छाप पड़ती है।

सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक सन्ताप दोनों ही अपने प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं। ज्वार−भाटे जैसे− यह आवेश अवसाद सामयिक अनुभूति बन कर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है। ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं जिनमें चित्त शान्त सन्तुलित रहता हो और आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने की बात सूझ पड़ती हो। यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल जंजाल में उलझे जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस लिया जा सकता है और न जीवन लक्ष्य को पूरा करने की बात बनती है।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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